भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुका न पाया कर्ज नदी में डूब गया / प्रदीप कुमार 'दीप'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चुका न पाया कर्ज नदी में डूब गया,
साहूकार की गाली खाकर रामधनी॥
निर्धनता अभिशाप जगत में होती है,
जाते-जाते गया बताकर रामधनी॥

पाई पाई कर जोड़ी थी जो पूँजी,
चाट गयी उसको पत्नी की बीमारी।
बिकने से सामान बचा था जो घर में,
नाम था उसका शब्दकोश में लाचारी॥

चला गया है लाचारों की सूची से,
आज अचानक नाम कटाकर रामधनी॥

पैसे की भूखी इस जालिम दुनिया में,
मन के भोले और जुबां के सच्चों का।
सोच-सोच कर कई दिनों से था गुमसुम,
मेरे बाद में क्या होगा इन बच्चों का॥

गया सुकून के संग छोड़ इस दुनिया को।
बच्चों को खुद जहर पिलाकर रामधनी॥

कब तक पीड़ा पीकर प्यास बुझाता वो,
कब तक ठंडे चूल्हे से बातें करता।
कब तक ब्याज चुकाता मात्र पसीने से,
कब तक जीने की खातिर नित-नित मरता॥

ऐसे लाखों प्रश्न सदी के माथे पर,
दीप गया लिख शोर मचाकर रामधनी॥