चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैनें प्रेम
अभी ।
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर ।
किंतु मैं हूँ मौन आज
कहाँ सजे मैनें साज
अभी ।
सरल से भी गूढ़, गूढ़तर
तत्त्व निकलेंगे
अमित विषमय
जब मथेगा प्रेम सागर
हृदय ।
निकटतम सबकी
अपर शौर्यों की
तुम
तब बनोगी एक
गहन मायामय
प्राप्त सुख
तुम बनोगी तब
प्राप्य जय !
( १९४१ में लिखित )