चुक जाने के बाद / मनोज पाण्डेय
सब कुछ बेच-खरीद कर
चुक जाने के बाद
आना लौट कर
अपनी कविता के पास
किसी भी रस्ते से
पर दुकान से होते नहीं
पूरी की पूरी तुम्हारी होगी
बिना ख़रीदे, बिना बेचे
आना अपनी कविता के पास
अच्छर ग्यान से ही काम चलेगा
गणित न आती हो तो भी
गढ़ सको, तो गढ़ना
रच सको, तो रचना
लिख सको, तो लिखना
देख सको, तो देखना
पढ़ सको, तो पढना
पूरा का पूरा महसूस कर सकोगे
अपने आपको
सब कुछ बेच-खरीद कर
चुक जाने के बाद
खोजना अपनी कविता को
बंद आखों से काम चलेगा
अच्छर चीन्ह न पाओ तब भी
देखना, किसी की आँखों में
छूना, किसी की घुंघराली लटों में
सुनना, किसी तोतली बोली में
सूँघना, धरती से उठती गंध में
चखना, अनजानी रिश्तों के रस में
बिना ख़रीदे बिना बेचे
पाओगे
कि, कविता तुम्हारी ही है
सब कुछ बेच-खरीद कर
चुक जाने के बाद
आना ही है, लौट कर
एक न एक...
दिन
कभी न कभी
कभी न कभी