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चुटकी में प्राण हैं / रामगोपाल 'रुद्र'
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फिर घेरा डाल रहा है कोई घेरके;
यह ममता का गुण है या छल का जाल है?
खोकर जो अपना केन्द्र परिधि-सा आप है
फिर बिन्दु बनाने आई विधि की चाल है!
अधिकार तुम्हारा है भी? जो अधिकार का
आकाश तुम्हारा बाँध रहा है आग को;
दिल छील रहे छुरियों से, छल की धार से,
पर धो भी क्या सकते हो तुम इस दाग को?
चुटकियाँ चटखती हैं, चुटकी में प्राण हैं;
मसले हैं मेरे फूल, तुम्हारी जीत है!
मेरी हारों के हार पहन तुम हँस रहे;
हारों में गूँज रहा मेरा जय-गीत है!
मोहक यह घेरा मोह कहीं जो बन गया,
कोमल! तुम कैसे झेल सकोगे पीर वह?
जलपरियों की जो आँखमिचौनी आज है,
भय है, बन जाए ज्वाल न छलका नीर वह!