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चुनरी में पहाड़ / कुमार कृष्ण

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तुम चुनरी में बाँध कर ले आए शहर में
अम्मा के सत्तू
ले आए भुनी मक्की के दाने
राजधानी की सड़कों पर चलाने लगे-
कलम का हल
धीरे-धीरे लगे जानने-
राजधानी सत्तू की जगह सिजलर खाती है
सरकारी उत्सवों पर गाँव के गीत गाती है

मैं जब भी सोचता हूँ तुम्हारे बारे में
सोचता हूं-
अभी एक सदी और बीत जाएगी-
पीठ पर पहाड़ ढोते हुए
तुम लाख कोशिश करो उसे बचाने की
एक दिन पूरी तरह गिर जाएगा लिटन ब्लॉक
आते रहेंगे जयप्रकाश बार-बार पहाड़ पर
बिकते रहेंगे गाँव के गाँव
बिक जाएंगी नदियाँ
बिक जाएंगे पहाड़
इन्द्रप्रस्थ की कुल्हाड़ियाँ कर देंगी कत्ल-
तमाम पहाड़, तमाम जंगल
कहीं नज़र नहीं आएगा तुम्हारा लाल होता दरख्त
आखिर कब तक पाल पाएगी अपना परिवार
चाय बेच कर भागो देवी
तुम छुपाते रहो-
पहाड़ की तकलीफ़ अपनी कहानियों में
दर्ज करते रहो साजिशों का पंचनामा
लुटियन की दिल्ली में सजते रहेंगे-
आदिवासियों के मेले
जो नहीं आए कभी पहाड़ पर
नहीं जानते पहाड़ का दर्द
जो नहीं जानते दाड़गी से चनावग की चढ़ाई में
कितनी बार पढ़ता रहा भगतराम-
मिथ ऑफ सिसिफस
जनकपुरी के वही लोग लिखते रहेंगे-
पहाड़ की कहानियाँ।