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चुनाव पर्व / अमरेन्द्र

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तीन लोक से अलग है, यह चुनाव का लोक
जिसकी ही उम्मीद थी, वही गिरा है चित्त
राजनीति है बन गई कफ्फ, वायु और पित्त
कहीं दही का सगुन है, कहीं डायन की टोक ।

प्रजा मताई हर्ष में; नेता उससे और
नाॅनवेज से वेज तक, ऊपर-नीचे थाक
गंध घूमती इत्रा की, जिसकी जैसी धाक
कहीं उठाए ना उठे, कर में आया कौर ।

कुल पूँजी थी दाव पर, इसकी-उसकी आय
पाँच साल की दौड़ में कितना होगा ब्याज
बस विपक्ष को है पता राजनीति का राज
जनता को है क्या हुआ, क्यों ऐसे अगराय !

भेद-भेद का भेद है, सबको लगे अभेद
लौह-दुर्ग में कठिन है छेदम-छेदा-छेद ।