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चुनिन्दा अश्आर- भाग चार / मीर तक़ी 'मीर'

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३१.
‘मीर’ बन्दों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
३२.
कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर
पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह कर
३३.
ताअ़त<ref>ईश्वराराधना</ref> कोई करै है जब अब्र <ref>बादल</ref> ज़ोर झूमे ?
गर हो सके तो ज़ाहिद ! उस वक़्त में गुनह<ref> अपराध</ref> कर
३४.
क्यों तूने आख़िर-आख़िर उस वक़्त मुँह दिखाया
दी जान ‘मीर’ ने जो हसरत<ref>अभिलाशा </ref> से इक निगह<ref>दृष्टि</ref> कर
३५.
आगे किसू के क्या करें दस्तेतमअ़ <ref>कामना का हाथ</ref>दराज़<ref>पसारना</ref>
ये हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे
३६.
न गया ‘मीर’ अपनी किश्ती से
एक भी तख़्ता पार साहिल तक
३७.
गुल की जफ़ा<ref>अत्याचार</ref>भी देखी,देखी वफ़ा-ए-बुलबुल<ref>बुलबुल का आत्म-विसर्जन,त्याग</ref>
इक मुश्त <ref>मुट्ठी-भर</ref> पर पड़े हैं गुलशन में जा-ए-बुलबुल<ref>बुलबुल के स्थान पर</ref>

३८.
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़<ref>प्रेमारम्भ में</ref> में हम
हो गए ख़ाक इन्तिहा <ref>अन्त</ref> है यह
४०.
पहुँचा न उसकी दाद <ref>प्रशंसा करने के लिए</ref> को मजलिस<ref>सभा </ref> में कोई रात
मारा बहुत पतंग ने सर शम्अदान पर

शब्दार्थ
<references/>