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चुपके-चुपक आ रही है घातक रात / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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चुपके-चुपक आ रही है घातक रात,
गत बल शरीर का शिथिल अर्गल तोड़कर
कर रही प्रवेश वह अन्तर मंें,
हरण कर रही है जीवन का गौरव रूप।
कालिमा के अक्रणम से पराजय मान लेता मन।
यह पराभव की लज्जा, अवसाद का अपमान यह
जब हो उठता है पुंजीभूत
सहसा दिखाई देती है दिगन्त में
स्वर्ण किरणों की रेखा अंकित दिन की पताका।
आकाश के न जाने किस सुदूर केन्द्र से
उठती है ध्वनि एक, ‘मिथ्या है, मिथ्या है ।’
प्रभात के प्रसन्न प्रकाश में
देती दिखाई है दुःख विजयी प्रतिमा एक
अपने जीर्ण देह दुर्ग के शिखर पर।

‘उदयन’
27 जनवरी, 1941