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चुपचाप बहती नदी / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
बरसों से कल-कल
बहते-बहते थक चुकी नदी
पहाड़ की गोद में
एक दिन प्रेम भरी नींद
सोना चाहती है
कोई जाओ
कहो पहाड़ से कि
नदी ज़रा शर्मीली है
यूँ ही चुपचाप बहती रहेगी
जंगलों में बीचोंबीच
मन्द-मन्द तड़कती
अन्दर ही अन्दर।