भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुप्पियों के कान में / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो!
इन चुप्पियों के कान में
कुछ गुन गुना आएँ।

मुझे
खुलते गवाक्षों से
निमन्त्रण धर रहा कोई
शिलायें तोड़कर
अमृत कलश सा
झर रहा कोई
शिथिल कुछ तो करो बन्धन
तनिक अभिसार के पथ पर
उनींदे आसमानों में
प्रतीक्षा कर रहा कोई
मिलन के
ये महूरत हैं
न ऐसे ही निकल जाएँ

किसी की खुशबुओं से
आज फिर
अहसास पुलकित हैं
उतर आई किरन ऐसी कि
अन्तःकक्ष ज्योतित हैं
समुन्दर में अलामत है
उमड़ते ज्वार आने की
स्वयं ही डूब जाने को
उठे मस्तूल हुलसित हैं
अमोलक क्षण
समर्पण के न हाथों से
फिसल जाएँ।