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चुप्पियों से ग़ज़ल बनाता है / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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चुप्पियों से ग़ज़ल बनाता है

और फिर शोर को सुनाता है


गाँवों में जब कभी वो आता है

रो के सब को यहाँ रुलाता है


वो जो सरदार है कबीले का

पानी माँगो तो आग लाता है


आदमी है न ए ज़माने का

दोस्ती सबसे वो निभाता है


बन के बैठा है जो ज़माने पर

बोझ वो खुद कहाँ उठाता है


कालिजों में पढ़ा—लिखा सब कुछ

देखिए वक़्त क्या सिखाता है


बात करता है सिरफ़िरों जैसी

आँधियों में दिया जलाता है


खोदता है वो खाइयाँ अक्सर

लोग कहते हैं ‘पुल बनाता है’


दर्द से भागकर कहाँ जाएँ

दर्द सबको गले लगाता है


आँकड़ों में बदल दिया सबको

अब उन्हें जोड़ता—घटाता है


भीड़ की बात ‘द्विज’ नहीं सुनता

भीड़ में रास्ता बनाता है