चुप्पी की पुकार / गुलाम नबी ‘नाजिर’
कुछ दे पूर्व, उस पर्वत के पीछे
डुबकी ली, कूदा, मूँद आँखे-
क्षितिज में सूर्य-
उस समय गोद में था खिलाता मेरा अरूण अग्नि-मुखी
या जो काँटों पर थे-’गुले-लाला’
धुआँ धुआँ करता कलेजा
रक्त शोले बिखेरता
जलते चिराग़ उनकी आँखें
होंठ होंठों से मिले
था यह क्षितिज उन पर्वत मालाओं के
कानों में फुसफुसाता चुपचाप कुछ
साँध्य-छायाओं ने, खोले इतने में पंख
यह जगत सिर गोदी में लटकाए
बात पर मेरी लगा था ग़ौर करने
और अल्हड़ शाम की जान पर बन आई
घोर अँधियारे ने घेरा
दास्ताँ-’शब-रंग’ की सुननी है
पर, कान कौन धरे
सुनाऊँ बात
ख़ामोश हो
सुने या अन्य कोई तो भला
या फिर सुनो आँखों से
पर्वतों ने ढक लिया अपने को सिर से पाँव तक
गुप-चुप
बाद में चाहो तो वाणी दो मेरे शब्दों को
अपने पंजों पर उचक कर
दृष्टि दौड़ाते ये पेड़
और आँखें तारकों की, थक गई भूतल को देख
चाँद सोनाली दुल्हन, मूर्त्त-पद्मिनी
कैसे-कैसे गीत सुंदर कोख में भू ने भरे
और नदियों से छिपे यह नदी हद
गीत गाते बह चले
और सोतों से भी फूटी
एक शीतल-मुखी ख़ामोशी मधुर
नील-गगन विस्तृत
स्वर्णपूरित नभ यदि न थामता उसको
और बुझे दीपों ने मचाया सख़्त शोर
जाने कब यह रात फाड़े अपना आँचल
और जन्म इक पुकार
यह न समझो कि क्रूर ख़ामोशी का अहम टूटेगा
ओैर शोर मचेगा चारों ओर
बात वह कुछ और है !