भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुप्पी से बतियाती है अब उस पुल की महराब / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
एक पुराने एल्बम से वे
खुलते थे तब लॉन
बैठ जहाँ चुपचाप
कभी हम सहलाते थे दूब
लम्बी अनबोली यात्राएँ
की थीं जिनके साथ
वे रांगोली सन्ध्याएँ तो
गईं सिन्धु में डूब
विदा कहा करते
सूरज को
जिस पर जा कर रोज़
चुप्पी से बतियाती है
अब उस पुल की महराब