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चुप्पी / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
वर्षों बाद चुप्पी तोड़ी थी तुमने
तुम्हारे रुमाल की खुश्बू
किसी मजदूर के पसीने-सी बिखर रही थी फिजाँ में
शायद किसी रोते हुए बच्चे की
पोछा था तुमने आंसू
रात तुम्हें मुबारकबाद देने
चाँद-तारे आये थे धरती पर
मेरी गुफ्तगू हुई थी उनसे
हैरान थे सारे
पास एक नदी जो सूखी पड़ी थी
अचानक बाढ़ में मुझे बहा ले जा रही थी
शायद कहीं ग्लेशियर पिघला था
तुमने जब चुप्पी तोड़ी थी
बदल गयी थी दुनिया
ग्रह-नक्षत्र सारे !