भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुप्पी / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
उस चुप्पी में भी
गजब का शोर है
जिसे बनाया हथियार
लड़ने
तुम्हारे अत्याचारों से,
थप्पड़ की झन्नाटेदार गूंज
इसके प्रतिनद में
उभरी नहीं कोई सिसकी।
किसी सन्नाटे भरी रात को
फेंक दी गई सजी थाली
शोर करती है ठनठानाकर,
तब भी ओढ़ लेती है
मौन।
आँखों मे उभरी दर्द की लकीर
आवाज नहीं करती
वो हवा है वातावरण में फैली
किसी दिन
फट पड़ेगी दबते दबते
मिटा देगी तुम्हें
शोर सहित।