चुप रहना भी एक कला है / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
कोलाहल से भरे जगत में, चुप रहना भी एक कला है।
कुछ बातों में जीवन-दर्शन, कुछ बातें केवल आकर्षण।
कुछ बातों में कैद प्रतिष्ठा, कुछ बातों से हो अपकर्षण।
बातें! मायावी होतीं हैं, इनपर किसका ज़ोर चला है?
कोलाहल से भरे जगत में, चुप रहना भी एक कला है।
कुछ बातें आहत करती हैं, कुछ बातें खुशियाँ दे जाती।
कुछ बातें नवनीत सरीखी, चिकनी-चुपड़ी खूब सुहाती।
बातें! शायद इंद्रजाल हैं, बचता इनसे कौन भला है?
कोलाहल से भरे जगत में, चुप रहना भी एक कला है।
कुछ बातों में स्पर्श प्रेम का, जो शुचिता करती है धारण।
कुछ बातों में कपट समाहित, बन जाती हैं दुख का कारण।
जो बाहर से चमक रहा है, अंदर से वह खूब जला है,
कोलाहल से भरे जगत में, चुप रहना भी एक कला है।
कुछ बातों की बात निराली, सम्बंधों में जो रस घोले।
कुछ बातों में बू बनिये की, रिश्ते-नाते सब को तोले।
बातें! जग के लिए, जगत से, जगती को ही एक बला है।
कोलाहल से भरे जगत में, चुप रहना भी एक कला है।