भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुप रहौ ऊधौ पथ मथुरा कौ गहौ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
Kavita Kosh से
चुप रहौ ऊधौ पथ मथुरा कौ गहौ,
कहौ न कहानी जो बिविध कहि जाए हौ ।
कहै रतनाकर न बूझिहैं बुझाएँ हम,
करत उपाय बृथा भारी भरमाए हौ ॥
सरल स्वभाव मृदु जानि परौ ऊपर तैं,
उर पर घाय करि लौन सौ लगाए हौ ।
रावरी सुधाई में भरि है कुटिलाई कूटि,
बात की मिठाई मैं लुनाई लै ल्याए हौ ॥41॥