भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुप / शशि सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज बरसों बाद
दिल फिर से चाहता है
तुम्हारा हाथ थामें
इण्डिया गेट के लॉन में घूमूं
बहुत देर तक, रात होने तक
अंधेरे में पेड़ के नीचे खड़े रहें हम
सुनहरे, सपनीले भविष्य में खायें।
और पतझर का मौसम
बदल जाये अंधेरे के मौसम में
हमें लगे
अंधेरा पत्ती झर रहा है
हम कुछ न पूछें, न जानें
आज़ाद रखें खुद को
और जैसा जी चाहे जी ले
वक्त में से
बटोर ले उन मोतियों को
उस गोताखोर की तरह
जो समुद्र में चुपचाप
गहरे और गहरे
उतरता जाता है।