चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप / गौतम राजरिशी
चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप
आंगन-आंगन धीरे-धीरे फैली इस दोपहरी धूप
गर्मी की छुट्टी आयी तो गाँवों में फिर महके आम
चौपालों पर चूसे गुठली चुकमुक बैठी शहरी धूप
ज़िक्र उठा है मंदिर-मस्जिद का फिर से अखबारों में
आज सुब्ह से बस्ती में है सहमी-सहमी बिखरी धूप
बड़के ने जब चुपके-चुपके कुछ खेतों की काटी मेंड़
आये-जाये छुटके के संग अब तो रोज़ कचहरी धूप
झुग्गी-झोंपड़ पहुंचे कैसे, जब सारी-की-सारी हो
ऊँचे-ऊँचे महलों में ही छितरी-छितरी पसरी धूप
बाबूजी हैं असमंजस में, छाता लें या रहने दें
जीभ दिखाये लुक-छिप लुक-छिप बादल में चितकबरी धूप
घर आया है फौजी, जब से थमी है गोली सीमा पर
देर तलक अब छत के ऊपर सोती तान मसहरी धूप
(मासिक हंस-सितम्बर 2009, लफ़्ज़-सितम्बर 2011)