चूक सुधार / विजयशंकर चतुर्वेदी
मुझे सुधारना था वह जवाब
जो एक परीक्षा में बिगड़ गया था मुझसे
और बारहा मेरे सपनों में आता था ।
सजाना था हॉस्टल का वह कमरा
जहाँ से मैं निकला था आख़िरी बार
उसे अस्त-व्यस्त छोड़ कर कभी न लौटने के लिए
अपना नाम कटवाना था
उस खोमचे वाले की उधारी से
जो बैठता था कॉलेज के गेट पर ।
वह आल्मारी करीने से लगानी थी
जिसमें रखी होती थीं माँ की साड़ियाँ
और मुझे माँ जैसी ही लगती थीं
जतन से रखना था वह स्पर्श
जो पिता ने चूमकर रख दिया था मेरे माथे पर ।
जलती रुई जैसी यादों को
वक़्त की ओखली में चूरन बना देना था कूट-कूटकर
लौटा देना था वह फूल
जो कसकता रहता है मेरी पसलियों में
पत्थर बनकर ।
दोस्तों को विदा करते हुए
हाथ ऐसे नहीं हिलाना था
कि वे मिल ही न सकें मेरी उम्र रहते
खोज निकालना था वह इरेजर
जो उछल-कूद में टपक गया था बस्ते से ।
काग़ज़ की कश्ती यों नहीं बहानी थी
कि वह अटक जाए तुम तक पहुँचने के पहले ही
मुझे सम्भाल कर रखना था वह स्वेटर
जो बुना था तुमने गुनगुनी धूप में बैठकर
दिल के पास मेरा नाम काढ़ते हुए
मिटा देनी थीं अनगिनत भूलें यादों की स्लेट से
जो धँस गई हैं रोम-रोम में ।
दरअसल पृथ्वी को उलटा घुमाते हुए ले जाना था
उसके घुमाव के एकदम आरम्भ में ।