भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चूड़ियों के लिए / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
बीड़ी के बंडल में से
निकलता है स्त्री का केश
मैं लगता हूँ देखने उसे
दिखती है केश में दौड़ती
एक प्राण चेतना-
बैठी घुटनों के बल ठठरी-सी वह
पत्तों के ढेर में
एक-मेक हो चुकी है
जिसकी घ्राण ग्रथियां
तम्बाकू की गंध से
जरूर ही एक क्षण थक कर
पौंछा होगा उसने अपने
चूड़ी भरे हाथों से
माथे का पसीना
और केश टूटकर गिर पड़ा होगा
पत्तों के बीच कहीं
क्या कुछ करना पड़ता है स्त्रियों को
चूडिय़ों के लिए।