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चूमकर मेरी हथेली / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
बहुत सुकोमल नहीं
खुरदुरी- सी हैं, हथेलियाँ मेरी;
स्पर्श का सुख हो, न हो;
किन्तु निष्ठा है इनमें।
रेखाएँ दिखती नहीं इनमें,
बहुत परिश्रम किया है इन्होंने;
क्योंकि संघर्ष अस्तित्व का था।
अब तुम चूम लो हाथ मेरे;
ऐसे, जैसे कोई सिद्धपुरुष या योगी
अभिमन्त्रित कर देता है-
एक काला धागा या भोजपत्र।
तुम भी चूमकर मेरी हथेली-
इस पर कुछ रेखाएँ बना दो।
कोई कुछ भी कहे, मत सुनना।
तुम मेरे लिए हठ करके;
यदि सिद्ध बन जाओ;
तो मेरा वचन है- मिथ्या न होगा।
हमारी विजयगाथा पीढ़ियाँ बाँचेंगी।