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चूल्हा / पवन करण
Kavita Kosh से
इसकी आग में मैं अपना
इतिहास बाँचता हूँ
लोग इसे सिर्फ़ चूल्हा समझते हैं
मगर मेरी नज़रों में इसकी तौल
घर के पुरखे के बराबर है
ये जब जलता है तब बुझते हैं
इसके बुझने पर पेट जल उठते हैं
गृहिणी और इसके बीच एक ज़रूरी रिश्ता
साफ़-साफ़ देखा जा सकता है
इसमें आग और कोठरी में धान
हमेशा भरा रहे सभी चाहते हें
इसका एक रहना बिरादरी में
घर की साख होती है
बँटना होता है
बंद मुट्ठी का खुल जाना
इसकी राख में मुझे अपनी
भूख दबी मिलती है