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चूल्हे का दुख / हरिओम राजोरिया
Kavita Kosh से
मेरे धुएं के उस पार
कांपते हुए कुछ चेहरे हैं।
मैं अपराधी हूँ एक स्त्री का
जो निकालती है मेरे भीतर से राख
धो पोंछकर सुलगाती है मुझे
और घंटो बैठी रहती है अकेले
मेरे न जल पाने की चिंता में
कैसे कहूँ डरता हूँ
उसकी चूडियों की खनक से
मेरे काले रंग में घुल रही है
उस अकेली स्त्री की उदासी
मै अपराधी हूँ उसका
जो बार-बार फेरती है
पीली मिट्टी का पोता
और मैं हर बार
दीवारों पर छोड जाता हूँ कालिख़।