चेख़व का बिम्ब / कुमार मुकुल
ऊँचे कद-काठी की लकदक देह पर झूलते
ढीले सफ़ेद कुरते में दोलती
कोई न्यूकमर प्रशासिका थी वह
अपने गदराए काले बुलडाग से उसके लाड़ को देख
यह साफ़ था कि वह ... या ... है
कुत्ते के गले में कोई शिक्कड़ नहीं था बस बेल्ट थी
पर युवती की निगाहों और इशारों के बंधन को
वह बख़ूबी समझ रहा था
उसकी चील सी काउंस आँखों में
लाड़ में लोटते हुए भी
एक तीखी शिकारी चमक थी
सर्किट हाउस के फ़र्श पर पंजों के बल दोलती
युवती के डोलते वक्ष
दो अन्य झबरों से लग रहे थे
जिन्हें अपने झबरेपन से अंधी होती आँखों
और सिर पर किसी स्पर्श की प्रतीक्षा थी
उनकी कुकुआहट साफ़ सुनी जा सकती थी
युवती की आँखों पर हल्का काजल था
या आँखें ही सुरमई थीं पता नहीं
जो कुत्ते पर केंद्रित थीं
अब कुत्ते को बाहर छोड़ युवती ने किवाड़ भिड़का ली
घूम-घाम कर कुत्ते ने हल्की दस्तक दी और
अंदर हो गया
और चेख़व की
सफ़ेद कुत्तों वाली महिला का बिम्ब बाधित हुआ
जिसे पड़ोस की बालाएँ जीवित करती रहती थीं
और - जीवन को बच्चों की बाधाओं से
मुक्त रखने के आकांक्षी पत्रकार एस.पी.सिंह का
दुख याद आया
जो उनके मृत कुत्ते के प्रति प्रतिबद्ध था।