चेतना / नई चेतना / महेन्द्र भटनागर
हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी,
लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी !
है नयी पदचाप से गुंजित मही,
ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही !
छिन्न सदियों का अंधेरा हो गया,
राह पर जगमग सबेरा है नया !
यह विगत युग का न कोई साज़ है,
रूप ही बदला धरा ने आज है !
वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना
कर रही सामान्य की आराधना !
काल बदला और बदली सभ्यता,
दे रही नव फूल संस्कृति की लता !
फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा,
मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा !
स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही,
भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही !
शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओं,
पास आता जा रहा 'क्यूरो सिवो' !
धूप से झुलसे हुए 'होरी' कृषक
आ रही 'जल की हवा' जीवन-जनक !
उर लगाले जीर्ण 'धनिया'-देह को
(रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !)
आज तो आकाश अपना हो गया,
आदमी का, सत्य सपना हो गया !
रचनाकाल: 1948