भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चेहरा / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
सूरज सिर पर हो
तो मैं नहीं समझता
कि आदमी का चेहरा साफ़ दिखता है
आँखें चौंधियाती सी हैं
चांदनी में चेहरा दिखता तो है
पर पढ़ा नहीं जाता
गोधूलि और प्रात अच्छे हैं
जब चेहरे खिलते और बोलते हैं
पर तारों की रोशनी में
तो रह ही नहीं जाता चेहरा
पूरी देह होती है चुप्पी में डोलती
अन्धे शायद सही समझते हों
तारों भरी रात की भाषा
जिसे वे बजाते हैं अक्सर
और प्रेमी भी
जो बचना चाहते हैं तेज़ रौशनी से
जिनके लिए आँख की चमक भर रौशनी ही
काफ़ी होती है।