चेहरे तो मायूस, मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की / रामकुमार कृषक
चेहरे तो मायूस, मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की ।
शो-केसों में सजी हुईं ख़ाली दुकानें दुनिया की ।
यों तो जीवन के कालिज में हमने भी कम नहीं पढ़ा,
फिर भी सीख न पाए हम कुछ ख़ास ज़ुबानें दुनिया की ।
हमने आँखें आसमान में रख दीं खुलकर देखेंगे,
कन्धों से कन्धों पर लेकिन हुईं उड़ानें दुनिया की ।
इंक़लाब के कारण हमने जमकर ज़िन्दाबाद किया,
पड़ीं भांजनी तलवारों के भ्रम में म्यानें दुनिया की ।
हमने जो भी किया समझवालों को समझ नहीं आया,
ख़ुद पर तेल छिड़ककर निकले आग बुझाने दुनिया की ।
बड़े-बड़े दिग्गज राहों पर सूँड घुमाते घूम रहे,
अपनी ही हस्ती पहचानें या पहचानें दुनिया की ।
फूट पसीना रोआँ-रोआँ हम पर हंसता कहता है,
क्या ख़ुद को ही दफ़नाने को खोदीं खानें दुनिया की ।