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चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं / विजयशंकर चतुर्वेदी
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चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं
बूढ़े मुस्कुराते थे मूछों में
हर युग की तरह
इनमें से कुछ जाना चाहते थे बैकुंठ
कुछ बहुओं से तंग़ थे चिड़चिड़े
कुछ बेटों से खिन्न
पर बच्चे खेलते थे इनकी दाढ़ी से
और डरते नहीं थे
दाढ़ी खुजलाते थे जुम्मन मियाँ
तो भाँपता था मोहल्ला
नहीं है सब खैरियत
पिचके चेहरों पर भी थीं दाढ़ियाँ
छिपातीं एमए पास जीवन का दुःख
दाढ़ीवाले छिपा लेते थे भूख और रुदन
कुछ ऐसे भी थे कि उठा देते थे सीट से
और फेरते थे दाढ़ी पर हाथ
बहुत थे ऐसे
जो दिखना चाहते थे बेहद खूँखार
और रखते थे दाढ़ी।