भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चेहरे पर मुस्कान लगा कर बैठे हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चेहरे पर मुस्कान लगा कर बैठे हैं।
जो नक़्ली सामान सजा कर बैठे हैं।

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे,
जो कितने संसार जला कर बैठे हैं।

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही,
यूँ ही सब के साथ बना कर बैठे हैं?

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी,
मुँह उसका इस क़दर दबा कर बैठे हैं।

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर,
हम फूलों की लाश चढ़ा कर बैठे हैं।