भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चेहरों पर हों कुछ उजाले, सोचता हूँ / प्राण शर्मा
Kavita Kosh से
चेहरों पर हों कुछ उजाले, सोचता हूँ
लोग हो ख़ुशियों के पाले, सोचता हूँ
जिस्म के काले जो होते दुख नहीं था
शख़्स हैं पर मन के काले, सोचता हूँ
आदमी गर आदमी से प्यार करता
यूँ न बहते ख़ूँ के नाले, सोचता हूँ
ढूँढ़ लेता मैं कहीं उसका ठिकाना
पाँव में पड़ते न छाले, सोचता हूँ
'प्राण' दुख आए भले ही ज़िंदगी में
उम्र भर डेरा न डाले, सोचता हूँ.