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चैतहि बरुआ बिजय भेल, बैसाख पाँहुन भेल हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

बरुआ जनेऊ के लिए घर जाना चाहता है। वह केवट से नदी के पार उतार देने का आग्रह करता है, क्योंकि घ्ज्ञर पहुँचकर वह भिक्षा ग्रहण करेगा। मोती उपजाने, सोने की थाली में लड्डु भरवाने आदि से बरुआ के परिवार की संपन्नता का बोध होता है।

चैतहिं बरुआ बिजय<ref>विजय, भोजन के लिए आमंत्रण, वहाँ उपनयन में आमंत्रित होने से तात्पर्य है</ref> भेल, बैसाख पाँहुन भेल हे।
घर पछुअरबा केबटा भैया, मोरा पार उतारह हे।
जब हम पार उतारब, बाबू जैभऽ<ref>जाओगे</ref> कौन देस हे॥1॥
जैबो में जैबो ओहि देस, जहाँ बाबा कवन बाबा हे।
हुनकर<ref>उनका</ref> चरन पखारबऽ कुछु भिछा माँगब हे, हम बाभन होयबो हे॥2॥
जऊँ हम जानतेॅ गे माइ, कबो<ref>कभी</ref> होयत तापसि हे।
गाँगहिं हर जोतैतेॅ<ref>जुतवाता</ref>, मोतिया उपजैतेॅ हे॥3॥
सोने के थारी गढ़ैतेॅ, लडुआ<ref>लड्डू</ref> से भरैतेॅ<ref>भरवाता</ref> हे।
अँचरा झाँपि भिखि दिहितै<ref>देता</ref>, झोरिया<ref>झोली में, अनेऊ के अवसर पर बरुआ के कन्धे पर रहनेवाली झोली, जिसमें बरुआ के लिए खाद्य-सामग्री रखी जाती है</ref> भरि दिहितेॅ हे॥4॥

शब्दार्थ
<references/>