चैतहि बरुआ रूसिय गेल, बैसाखहि लौटल हे / अंगिका लोकगीत
प्रस्तुत गीत में ब्रह्मचारी द्वारा नदी पारकर आने और उपनयन-संस्कार के समय भिक्षा में द्रव्यादि प्राप्त करने का उल्लेख है।
भिक्षाटन की परिपाटी वैदिक आचार से संबद्ध है। ब्रह्मचारी पहले भिक्षाटन करके ही भोजन करते थे। यह विधि उसी की याद दिलाती है।
चैतहिं बरुआ रूसिय<ref>रूठ गया</ref> गेल, बैसाखहिं लौटल हे।
घाट पूछै न बाट पूछै न घटबरबा<ref>घटबार; घाट का ठीकेदार</ref> हे, हमरा पार उतारि देहो हे॥1॥
जऊ<ref>अगर</ref> तोरा बाबू पार उतारब, तोहें जैबै कौने देस हे।
जैबै में जैबे कवन देस, जहाँ में बसै बड़का दादा हे॥2॥
हुनकर चरन पखारब, कुछो भिछा<ref>भिक्षा</ref> चाहियऽ हे।
कुछो आसिस चाहियऽ हे।
सरँगहिं<ref>स्वर्ग में</ref> जोतबैतउँ<ref>जोतवाता</ref>, ऊजे सोने उपतैतउँ हे।
ऊजे चानी उपजैतउँ हे॥3॥
सोनमा के थार बनबैतउँ, आँचर झाँपि लेतउँ हे।
बरुआ भिखि देतउँ हे॥4॥
येहो हम जानितउँ माय हे, दुलरैता होता भिछुक हे।
सोना के थार बनबैतउँ, मोतिया भरि लेतउँ हे, हीरा भरि लेतउँ हे।
अँचरा झाँपि लेतउँ हे, बरुआ भिखि देतउँ हे॥5॥