चैता से फाग तक / संतलाल करुण
घायल चैता खेत में, ओलों से बेहाल
आशा के खलियान में, बिखरी पड़ी पयाल ।
तपे उम्र बैसाख-सी, गई न इच्छा-दूब
उग्र समय के ताप से, रही धूल में सूख ।
घर न छोड़े कामना, जले जेठ की आग
पानी बिन मुरझा गए, उजड़े-पुजड़े बाग़ ।
ढाढ़स के कुछ दँवगरे, औरों का आषाढ़
सूखे सरवर में उठी, एड़ी तक की बाढ़ ।
बादल संग बहकी हवा, सावन के ओसार
व्याकुल हृदय समुद्र का, चुआ नयन की धार ।
भादों यादों की बरस, टूटी मूरत रैन
सपने सोये टाट पर, ज्यों विधवा के नैन ।
क्वार हूक उड़ गगन में, पाँत कराँकुल भेष
अता-पता बिन खोजती, गई गुड़ी किस देश ।
कातिक कोठे चढ़ खड़ी, खोल जुन्हाई रूप
मनुआँ दर्पण नेह का, जोहे सुबह स्वरूप ।
अगहन सुधियाँ सड़क पर, काँपे गठरी हाथ
खोले-बाँधे की व्यथा, अत्तल-पत्तल साथ ।
पूस कुहासे की कहर, पपिहा घिर संकोच
अन्तः कोटर में छिपा, बाहर काढ़े चोंच ।
माघी पाले झुलसती, अँगनैया की सेम
सुखी अलाव की आँच ने, पूछी कुशल न क्षेम ।
फागुन बाहर बौर से, पुरुवा खेले फाग
मन निगुड़ा बैठा धँसा, लग न जाए दाग ।