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चैत्र की यह शाम / आलोक श्रीवास्तव-२

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यह जाते हुए चैत्र की शाम है

झरे पत्तों की उदास
रागदारी बजती है
मन के उदास कोनों में
जाते चैत्र का यह दृश्य
ठहरा रहेगा ताउम्र
ऐसे ही याद दिलाता
किसी सूने रास्ते
और पर्वतश्रेणी के पीछे
खोती शाम का !