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चैत के पहले दिन मैं और तुम-1 / चंद्रभूषण

राह चलते, बस में, मेट्रो में, दफ़्तर में
हर जगह तुम्हें पहचानने की कोशिश करता हूँ ।

हर चेहरे को इतना घूरकर देखता हूँ कि
लोग मुझे ख़तरनाक समझने लगते हैं ।

क्या करूँ, हर चेहरे में कोई न कोई बात
तुम्हारे ही जैसी लगती है ।

और यह भी छोड़ो,
मेरे घर के सामने वाले पेड़ में छिपकर
चिक-चिक करती अजीब-सी छोटी चिड़िया में भी
जब-तब मुझे तुम्हारे जैसी ही ऐंठ सुनाई देती है ।

तुम शायद यह सुनकर हँसो
लेकिन शादी के मंडपों और चुनावी जलसों में
बिखरे गेंदे और गुलदाउदी के फूल देखकर
मेरा कलेजा धक से रह जाता है-
हरामज़ादों ने कहीं तुम्हीं को तो नहीं नोच डाला ।

सपनों में कभी तुम्हें डंप पर चिथड़े बीनते
कभी सिनेमाहाल पर
मुँह ढककर भीख माँगते देखता हूँ

अच्छी तरह यह जानते हुए कि
जैसे ही तुम्हारी तरफ बढ़ूँगा,
तुम हवा हो जाओगे ।

मुझे माफ़ करो, मुझ पर रहम करो
तुम्हें खोजने के चक्कर में
कहीं मेरा दिमाग न चल जाए ।