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चैत के पहले दिन मैं और तुम-2 / चंद्रभूषण
Kavita Kosh से
जाड़ों की तरह तुम्हें जाते हुए देख सकता हूँ ।
महुए के चुरमुर पत्ते तुम्हारे पाँवों तले दबकर
तुम्हारे जाने की तकलीफ़ बढ़ा रहे हैं ।
लगता नहीं कि तुम कभी इधर लौटोगे,
हालाँकि जाड़े बार-बार लौटेंगे
और हर बार मुझे पहले से कमज़ोर पाएँगे ।
सुन सको तो वहाँ दूर से सुनना
चलो, अपने न सही मेरे ही कानों से सुनना
कि कोयलें कूक रही हैं ।
आज चैत का पहला दिन है
न जाने कब कट चुके महुए के बागों में
आँखें बंद किए मैं
तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा हूँ ।
मेरी आँखें, मेरी नाक
मेरे कान, मेरी जीभ, मेरी त्वचा
मेरा सब कुछ तुम्हारा है ।
तुम्हारे लिए ख़ुद को आज
मैंने पूरा का पूरा खोल दिया है ।
मुझसे होकर इस दुनिया के
जितने भी क़रीब आ सकते हो,
चले आओ ।