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चोंच का लोहा काठ का मन / मृदुला सिंह

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लगातार गुम हो रही है
उजाड़ के अंधकार में
कठफोड़वे की आवाज
इसके चोंच का लोहा
काटता है काठ का हृदय
बुनता है टक-टक की ध्वनि
जिसमें गूंजती है
जीवन की उम्मीद

श्रम से बनाये अपने ठौर को
गर्भिणी सुग्गी को सौंप
उड़ जाते हैं दूर
और जुट जाते हैं
फिर से नए की जुगत में
बनाते जाते हैं मेहनत से
घोसले में टिकते नहीं
सौंपते जाते हैं दूसरे को

मेरे इस कंक्रीटी शहर में
जरूरत है तुम्हारी
यहाँ एकांत है बाहर
लेकिन अंदर शोर बहुत है
अजनबीयत की छांव पसरी है
हर किसी के चेहरे पर

बुलाती हूँ तुम्हे ओ मित्र
आओ यहाँ बचा है अभी भी
बूढ़ा एक शीशम
खाली पड़ी जमीन पर
बैठो और सिखाओ
हमारे शहरी बच्चों को
दुनिर्वारण के गुर
तय करनी है उन्हें अभी
आगे की कठिन यात्रा
तुम्हारा दिया पाथेय बनेगा
उनकी धुंधली पगडंडियों में

संभावनाओं की रोशनी छिटकेगी
मिल जुल कर बांटेंगे ये अपना-अपना
दुखम-सुखम