भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चोटी पर खड़े आदमी को देखो ! / भारत यायावर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चोटी पर खड़े आदमी में
हमें पहले देखना चाहिए
कि वह किस तरह चोटी पर पहुँचा
किसलिए पहुँचा
और पहुँच कर क्या कर रहा है ?

चोटी पर पहुँच कर आदमी प्राय: अकेला हो जाता है
वहाँ दुकेला होने की जगह भी नहीं होती
इस अकेलेपन से क्या उदास हो जाता है चोटी का आदमी !

चोटी के आदमी की पीर को
कोई जान भी नहीं पाता
और वह छुपाता रहता है अपने ज़ख़्म

चोट खाकर भी पहुँचता है
चोटी पर आदमी
बस, उसकी शक़्ल थोड़ी बदल जाती है
उसकी आवाज़ कहीं दूर से चल कर आती है

चोटी
एक ऐसी जगह है
जहाँ जाने की ज़रूरत नहीं
फिर भी कुछ चतुर लोग
किसी को चोटी पर बिठाकर
अपनी राजनीति चमकाते हैं
कुछ धन्धेबाज़ों का धन्धा चल निकलता है
कुछ भजन-मण्डलियाँ मृदंग और झाल बजाकर माल कमाती हैं !