भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चोट खा के भी मुस्कुराए हैं / विकास जोशी
Kavita Kosh से
चोट खा के भी मुस्कुराए हैं
ज़िन्दगी हम तेरे सताए हैं
ढूंढता है वो मेरी आँखों में
मैंने आंसू कहां छुपाए हैं
इक तेरी याद रह गई है बस
जिसको सीने से हम लगाए हैं
कैसे हम छोड़ दें ये घर अपना
हमने बचपन यहां बिताए हैं
ज़िन्दगी का सुलूक ऐसा था
जैसे के हम कोई पराए हैं
ज़िक्र हरगिज़ नही किया हमने
ज़ख्म अपनों से कितने खाए हैं
चल रहे दूर दूर जो हमसे
ये हमारे उदास साए हैं
खौफ़ सैलाब का अगर था तो
क्यूं किनारों पे घर बसाए हैं
ओंठ जलना तो लाज़मी था फिर
अश्क़ क्यूँ जाम में मिलाए हैं