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चोट ताज़ा कभी जो खाते हैं / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
चोट ताज़ा कभी जो खाते हैं
ज़ख्मे-दिल और मुस्कराते हैं
मयकशी से ग़रज नहीं हमको
तेरी आँखों में डूब जाते हैं
जिनको वीरानियाँ ही रास आईं
कब नई बस्तियाँ बसाते हैं
शाम होते ही तेरी यादों के
दीप आँखों में झिलमिलाते हैं
कुछ तो गुस्ताख़ियों की मुहलत दो
अपनी पलकों को हम झुकाते हैं
तुम तो तूफ़ाँ से बच गई ‘देवी’
लोग साहिल पे डूब जाते हैं