चोरी / नीलेश रघुवंशी
जब भी बहनें आतीं ससुराल से
वे दो चार दिनों तक सोती रहतीं
उलांकते हुए उनके कान में जोर की
कूंक मारते
एक बार तो लंगड़ी भी खेली हमने उन
पर
वे हमें मारने दौड़ीं
हम भागकर पिता से चिपक गए
नींद से भरी वे
फिर सो गईं वहीं पिता के पास…
पिता के न होने पर
नहीं सोईं एक भी भरी दोपहरी में
क्या उनकी नींद जाग गई पिता के
सोते ही…?
सब घेरकर बैठी रहीं उसी जगह को
जहां अक्सर बैठते थे पिता और लेटे थे
अपने अंतिम दिनों में…
पिता का तकिया जिस पर सर रखने
को लेकर
पूरे तेरह दिन रुआंसे हुए हम सब कई
बार
बांटते भी कैसे
एक दो तीन नहीं हम तो पूरे नौ हैं…
इसी बीच सबकी आंख बचाकर
मैंने पिता की छड़ी पार कर दी
उन्होंने देख लिया शायद मुझे
मारे डर के वैसे ही लिपटी छड़ी से
लिपटी थी जैसे पहली बार
पिता की सुपारी चुराने पर पिता से…