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चोर और बाग़ी / नेहा नरुका

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उसे लगता है
वह एक चोर है
जो रहती है हरदम
एक नई चोरी की फ़िराक में
जब भी वह अपने शरीर को गहने
फ़ैशन-एसेसरीज से सजाती है
मेकअप में लिपे-पुते होंठ
आँख, गाल, माथा और नाख़ून
उसे बेमतलब ही
चोर नज़र आते हैं
उसे लगता है
वह छिपाए फिरती है
इन सब में
‘कुछ’

उसे लगता है
घर में
कालोनी में
शहर में हर कहीं
सभी उसके पीछे पड़े हैं
क्या वाकई वह कोई चोरी कर रही है
उसे तो अमूमन यही लगता है
कि उसका भाई जो उसे टोकता है
पड़ोसी जो उसे देखता है
माँ जो उसे डाँटती है
बहन जो उसे घूरती है
ये सब उसे चोर समझते हैं

उसके पर्स में
क़िताब में ...
जो रखा है
उसकी डायरी में जो लिखा है
उसमें मन में जो घूमता है
यह सब चोरी का सामान
कहीं कोई देख न ले
पढ़ और समझ न ले

उसे लगता है
समाज की मान्यताओं को नकार कर
लगातार चोरी कर रही है
और ...
सज़ा से बचने के लिए
कभी-कभी वफ़ादारी का दिखावा कर लेती है
फिर भी उसे महसूस होता है
आज नहीं तो कल ये सब लोग
कोई न कोई सज़ा तय करेंगे उसके लिए

नहीं, वह नहीं जिएगी
तयशुदा घेरे में बँधकर
चोर की अपनी सीमा होती है
वह सोचती है
उसे तो ‘बाग़ी ’ होना पड़ेगा