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चोर दरवाजा / ज़ाहिद इमरोज़
Kavita Kosh से
मेरे ख़्वाब ज़ख़्मी हुए
तो दुनिया के सारे ज़ाब्ते झूठे लगे
मैं ने ज़िंदगी के लिए भीक माँगी
मगर आबाद लम्हों की पूजा के लिए
वक़्त कभी मेरे लिए न रूका
मुझे वेस्ट-पन से अपनाइयत महसूस हुई
लोग काग़ज़ों से बने खिलौने थे
जिन्हें हमेशा ख़िलाफ़-ए-मर्ज़ी नाचना पड़ा
भीगे साहिलों की हवा में ख़ून ही ख़ून था
झीलों के आबाद किनारे मुझे बंजर कर गए
पानी में तैरता मंज़र दग़ाबाज़ निकला
मैं मुख़ालिफ़ सम्त बहती कश्तियों में
ब-यक-वक़्त सवार हो गया
बादल बरस गए
तो आसमान पर धुआँ रह गया
मैंने ख़ुद को धुवें में उड़ाया
और मसरूफ़िसत से सौदा कर लिया