भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चौंक उट्ठा हूँ तिरे लम्स के एहसास के साथ / राग़िब अख़्तर
Kavita Kosh से
चौंक उट्ठा हूँ तिरे लम्स के एहसास के साथ
आ गया हूँ किसी सहरा में नई प्यास के साथ
तब भी मसरूफ़-ए-सफ़र था मैं अभी की मानिंद
ये अलग बात कि चलता था किसी आस के साथ
ढूँढता हूँ मैं कोई तर्क-ए-तअल्लुक़ का जवाज़
अब गुज़ारा नहीं मुमकिन दिल-ए-हस्सास के साथ
हो रहा है असर-अंदाज़ मिरी ख़ुशियों पर
उम्र का रिश्ता-ए-देरीना जो है यास के साथ
जिस्म के शीश-महल की है यही उम्र जनाब
जब तलक निभती रहे तेशा-ए-अनफ़ास के साथ