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चौकठ सोभलय चनन केरा, मछरी रेहुआ सोभै हो / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रस्तुत गीत के प्रारंभ में चंदन का चौकठ, रोहू मछली, टेढ़ी पाग और पतले अंग की नारी की श्रेष्ठता का उल्लेख आये हैं। सुंदर नारी, जिसका विवाह किसी वृद्ध पुरुष से हुआ है, सोलहों शृंगार करके इत्र आदि से सुवासित चंदन रगड़कर रखती है; लेकिन अपने वृद्ध पति को देख, जिसके दाँत टूट गये हैं और बाल पक गये हैं खिन्न है। पति अपना पौरुष-प्रदर्शन करते हुए कहता है कि ‘धनि, तुम तो रेंड़ की जड़ हो, तोड़ने से टूट जाओगी,लेकिन मैं तो बाँस की कोंपल के समान हूँ। इसलिए, मैं न झुक सकता हूँ, न टूट सकता हूँ।’

चौकठ सोभलय चनन केरा, मछरी रेहुआ सोभय हो।
ललना रे, पियबा सोभेलय टेढ़ी पगिया, इतरबा में बसायेली हो।
ललना रे, कथि लागी चढ़ली अँटरिया, कथि देखि झमान<ref>दुःखी</ref> भेली हो॥2॥
पिया लागि चनन रगड़ली, इतरबा में बसायेली हो।
ललना रे, पिया लागि चढ़ली अँटरिया, पियबा क देखि झमान भेली हो॥3॥
पियबा के केस सब पाकी गेलै, दाँत सब टूटी गेलै हो।
ललना, सभ रे समैया पियबा के बीतल, होरिला नहिं भेलै हो॥4॥
तहु धनि रेंड़वा<ref>रेंड़</ref> के जड़िया<ref>जड़</ref>, तोड़ने टूटी जाएब हो।
धनियाँ, हमहुँ त बाँस के कोंपरबा<ref>कोंपल</ref>, लबइते<ref>झुकाने से</ref> नहिं लबबै<ref>झुकूँग</ref>, झुकइतेॅ नहिं झूकबै हो॥5॥

शब्दार्थ
<references/>