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चौखट शहराई / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
ऊपर है लैम्प-पोस्ट
नीचे परछाईं
ऊँचे हैं हवामहल - गहरी है खाई
दिन हैं दीवार हुए
रातें फुटपाथ
बिछा रहे मखमल को
फटे हुए हाथ
चिकने चौरस्ते हैं- पँव में बिवाई
सडकों पर हैं जुलूस
कई ताम-झाम
बुझी हुई आँखों में
सन्नाटे आम
रोशनी हुई ज़्यादा- रातें गहराईं
उजले हैं झंडे सब
चेहरे बहुरूप
बुढ़ा गई गलियों में
नकली है धूप
गाँव की हवेली की चौखट शहराई