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चौथा पुष्प / खाद्य एवं जल मंत्री से भेंट / आदर्श

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सूर्यमुखी और कवि
पहुँचे जब
खाद्य और जल मंत्री
कमल के कक्ष में
जहां गा रहे थे
सुन्दर प्रबन्ध के प्रशंसा गीत
भौंरे अनुराग भरे
सारा कक्ष गूंजता था, जिससे
प्रसन्न हो कर
कमल प्रफुल्ल थे।

नमस्कार के अनंतर
इस भाँति दिया परिचय
कविवर से
सूर्यमुखी देवी ने कमल का-

‘ये हैं पुष्पनगर के
खाद्य और जल मंत्री
इनके परिश्रम से
यहां सुन्दर व्यवस्था है
भोजन की, जल की।

कभी किसी वस्तु की भी
यहाँ कमी होती नहीं,
आता है अकाल नहीं
कभी यहाँ स्वप्न में।“

”देवि! खाद्य और जल मंत्री
आप ने बताया,
चाहता हूँ जानना मैं
दलदल के मंत्री भी तो
कहीं यह हैं नहीं“
लेकर स्वर और शैली
व्यंग की
कवि ने मुसकाते हुए
सूर्यमुखी से कहा।

कमल तत्काल बोले,
”कविवर! मैं
दलदल का मंत्री भी अवश्य हूँ।
पंक से है मेरा जन्म
पंकज कहलाता हूँ,
पुष्पनगर में ही
वह कला हमें ज्ञात है जो
नीच और अपमानित
को भी यश देती है।

मानवों के लोक में तो
यही है समस्या नित्य
कैसे नीच और उच्च-
में हो समता प्रसार
बड़े बड़े युद्ध होते
होती विकराल क्रान्ति
थोड़ी सी
विषमता तब
कहीं मिट पाती है।

मानवों के दलदल में
व्यक्ति की तो बात ही क्या
जातियाँ समाप्त होती,
राष्ट्रों का विनाश होता,
अंधकारमय होता
मानव भविष्य ही।

ऐसी बात
संभव नहीं है
‘पुष्पनगर में’
यहां जहां दलदल है,
आशा भी वहीं है,
एक नूतन विकास,
एक नए निर्माण की।

भावना भी यहां जब
पाप की आ जाती है
मिलता है कठोर दंड,
बंद कर देता हूँ
खाद्य और जल अपराधी का
मानवों के यहाँ तो
अशुद्ध भावना ही नहीं
कर्म भी
अशुद्ध होते
और नहीं होता है
फिर भी दंड का विधान
ऐसा जिससे हो
शुद्ध जीवन की धारणा।

देवि सूर्यमुखी!
कहीं मैंने यह बात सब
केवल प्रसंगवश
व्यंग, तिरस्कारमयी-
वाणी सुन कवि की।

मानवों का कितना
पतन है
आवश्यक हो तो
कुछ और भी सुनाऊँ मैं।“

उत्तर में सूर्यमुखी ने कहा-
”सत्य ही की
खोज के लिए
यहां पधारे हैं मानवों के
कविवर, जो कुछ भी
कहेंगे आप
उसमें से आवश्यक
सार ये निकाल लेंगे,
आप कहे चलिए।“

सूर्यमुखी को ही
सम्बोधित कर
कमल फिर कहने लगे थे
”देखिए तो,
मानवों के कवि हैं वे
और दशा इनकी है जैसी
वह सामने हैं आप के।

चिन्ता से
बल पड़ा माथे पर इनके,
आंखें धंसी भीतर को,
चेहरे के दोनों ओर
हड्डियाँ ठोड़ी से मिलकर
त्रिभुज सा बनाती हैं,
अभी-अीाी
आयी है जवानी
किन्तु असमय ही
उसको भगाया मार
सबल वृद्धावस्था ने।

मानवों ने कितना
अपमान कवि का है किया,
आंकी नहीं कीमत कुछ
उसकी सेवाओं की,
मानते नहीं हैं वे कि
इन कवियों के द्वारा
जीवन की शक्ति
सदा पाते हैं

मानव जब भूल कर
सेवा भाव,
सौजन्य, शील सब
जानवर सा होता है,
या बनकर हिंसक,
दुराचारी परपीड़क
वह दानव बन जाता है,
कवि ही निज प्रतिभा के
रस से सींच
सूखी हुई बुद्धि लता को
हरी-भरी फिर करता है,
और सूखी हुई
भावनाएं फिर जाग जाग
अमृतमय, प्राणमय-
लेकर पदध्वनियां
मानव के मानस के
आँगन में नाचती है-
ऐसा कवि
कितना उपेक्षित है
आज नरलोक में।

सूर्यमुखी से यह कह
दृष्टि कवि ओर फेरी
मन्त्री अरविंद ने
और कहा-
”कविवर! स्वागत तुम्हारा है
हमारे यहाँ आए हो
देखने के लिए
यहाँ शान्ति का क्या मूल है।

सुन लो बतलाता हूँ,
कवि का महत्व
यहांँ ठीक-ठीक आँका गया,
उससे ले प्रेरणाएँ
शासन चलाया गया
राष्ट्रपति से भी उच्च
आदर हमारे यहाँ
राष्ट्रकवि को मिला।

पहला सत्कार
हम कवियों को देते हैं
हृदय का रस पान
उनको कराते हैं,
गूंजमयी वाणी सुन
धन्य बन जाते हैं।
केवल प्रफुल्लता में
मोद आमोद के समय में ही
हम अपने कवि मधुपों को
मान दिया करते हैं-

ऐसा भी सोचा मत,
गिरे दिनों में तो हम
उन्हें और मानते हैं,
आती जब संध्या,
सूर्य अस्ताचल जाते हैं,
गौरव-विकास के
हमारे सब प्यारे स्वप्न
मिटते हैं साथ ही,
अपने कवि मधुकर को
लेकर के गोद में
हम काटते हैं रात।

दुख की घड़ियों में
हम अपना सुख भूल सके
किन्तु अपने कवि को
अपने कलेजे में ही
हमने बैठा के रखा,
झंझा, तूफान
हम लोग झेल लेते
धू धू करती जो आग
उसकी भी लपटें
कर लेते सहन।

परन्तु यदि
कवि को हमारा दुखी
सहन न होगा हमें,
मरने के समान ही
कष्ट होगा हमको।

हम यह मानते हैं-
सभ्यता की, संस्कृति की
दृष्टि से
कोई राष्ट्र कितना समुन्नत है,
यह जानने की
बस एक ही कसौटी है-
कवियों का आदर
वह कितना है करता।

हमको प्रसन्नता है,
तिरस्कार पाकर भी
अपने कर्तव्य को
निबाहने में हो लगे
खोजते ही फिरते हो
मानव सुख साधन।

व्यंग किया आपने
न उसकी चिन्ता है हमें
न उसकी चिन्ता है हमें
कवियों की वाणी का
व्यंग एक भूषण है
हर्ष मुझे है बड़ा
पीड़ा निज भूल कर
चमत्कार वाणी का
सुन्दर दिखला सके।“

मंत्रीवर कमल के शब्दों का
बड़ा ही प्रभाव पड़ा
कवि पर, वे बोले-

क्षमा करो मेरी भूल,
मान्यवर! मेरी
व्यंगमयी वाणी
डसने के लिए नहीं
प्रेरणा के लिए थी,
हल्का, निर्दोष
मनोरंजन था उसमें।

मेरी दीन दशा का
जो चित्र खींचा आपने,
उसमें बस थोड़ी बात
कहनी है मुझको।

सच्चा काव्य
सांसारिक साधन का
होता नहीं अनुगामी,
अंतर की उच्चता ही
उसकी जन्म दात्री है।

धन्यवाद आपको है,
आगे अब जाऊँगा,
दूसरे मंत्रियों से भी
मिलना अभीष्ट है,
नमस्कार लीजिए।“

कमल से ले करविदा,
नमस्कार कर के
सूर्यमुखी आगे बढ़ी
पीछे चले कविवर।