चौदहवीं ज्योति - है कहाँ अरे! वह कलाकार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
है कहाँ अरे! वह कलाकार!
अनुपम, अपूर्व वह कलाकार!
जिसका तारों से सजा हुआ,
निर्मल नीलाम्बर बिछा हुआ,
सुन्दर वितान-सा तना हुआ,
इस अखिल विश्व पर निराधार।
है कहाँ अरे वह कलाकार!॥1॥
जिसने जग का निर्मल सागर
ही उलट दिया जग के ऊपर,
हैं भरे रत्न जिसमें सुन्दर
जग-मग जग करते बहु प्रकार।
है कहाँ अरे वह कलाकार!॥2॥
जिसके बसुधा-उर में सोती
पानी की बूँदों को मोती
करते पल देर नहीं होती
उसका कौशल कितना अपार
है कहाँ अरे वह कलाकार!॥3॥
जो तीक्ष्ण कंटकों में करता,
विकसित सुमनों की सुन्दरता,
कलियों में मृदुल हास भरता
रहता है प्रतिदिन लगातार।
है कहाँ अरे वह कलाकार!॥4॥
जो पत्थर को भी पिघला कर,
सरिता-स्वरूप में परिणत कर,
जग में नव-जीवन की सुन्दर,
सर्वदा बहाता सरस धार।
है कहाँ अरे वह कलाकार!॥5॥