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चौदह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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मत पागल मन घबराना तू
यह सोच विकाल हो जाना तू
चाहा जिसको वे मिले नहीं

कब मिली चाहने वालों को अपने ख्वाबों की दुनिया
देखो तो कैसे मिलती है, मिरची में हल्दी-धनियाँ
कब माँगा था मधुबन हमको तुम शूलों से भर देना
मिले अमिय पीने वालों को,

विष प्याले हाथों में,
चाहों की मंजिल मिली कभी
बस! एक को इन लाखों में।

बाकी सबोंको देखा है,
मिट जाना ही सीखा है,
कोई निज पथ से हिले नहीं
मत पागल मन घबराना तू,

देखो तो लँगड़े काँटों को कैसे गुलाब लग गया हाथ
चाहे उसको तोड़ो-नोचो, चाहे रो-रोकर धुनो माथ
पर गुलाब तेरे मरने पर आँसू कभी बहायेगा

तोड़ों तो लँगड़े काँटों को वह रो-रो कर मर जायेगा
लगड़ें काँटों का मधुचुंबन,
पाटल को कितना भाता है
वह विहंस-विहंस हंट जाता है

फिर बार-बार सैट जाता है
पूछो तो पाटल से जाकर,
वह लगता है कितना सुंदर

आमों की कोमल फुनगी पर क्यों खिले नहीं
मत पागल मन घबराना तू,

तूँ पूछ मयूरो से जाकर, बादल क्या उससे मिलता है
पूछो तो मस्त चकोरों से चन्दा क्या उससे मिलता है

मिलने की तो है बात और नभ-धरती का अंतर जिसमें
क्या रिझा रहा वह नाँच-नाँच, क्या ताका करता वह उसमें
मत पूछो! जग का पागलपन
ही तो जग का जीवन है
मैं एक नहीं सारी दुनिया
ही तो उन्मन-उन्मन है
दीवानों की बस्ती में क्यों डरते हो दीवानापन से
जो कहते हैं, खुद कायल है, अपने मन के पागलपन के
आँखों को अश्रु बहाने दे,
दिल को दिल से मिल जाने दे
वे पाए क्या? जो घुले नहीं
मत पागल मन घबराना तू